Tuesday, November 26, 2013

मैं चलती हूँ रुक कर - गिरकर


              मैं  चलती  हूँ रुक  कर -  गिरकर .,.,.,.,.,.,.,.,


ओस  की  बूँदें  चुनकर  -  चुनकर  
मैं  चलती  हूँ रुक  कर -  गिरकर 
ये  जीवन है  नदी  की  लहरें 
बहती  रहती  कलकल - कलकल 
औरत  का दिल पीर की  कुटिया 
 फेंको   ना  तुम कंकड़  - पत्थर
देते  धोखा बनकर  अपने 
 चलना   उनसे  बचकर -  बचकर
उड़ने  के  हैं अपने  खतरे
ज़मीं   पे  रहना  डटकर -  डटकर
जिन पन्नों  में  छुपे  हैं आँसू 
उनकी बातें  मतकर -   मतक

Saturday, November 23, 2013


सर्द   हवा .....



सर्द  हवा  हैं  रातें  सर्द  ,  अब  उनसे  मुलाकातें  सर्द .
बोझिल  आँखों  को  मत  दो ,  ख्वाबों   की  सौगातें  सर्द .
कौन  सुनाये - सुनेगा  कौन , चिकनी - चुपड़ी  बातें  सर्द  .
सोने  जैसी  धूप  में  भी  बिखरी  है  जज्बातें   सर्द .
नेता  और  जनता  के बीच  घातें और  प्रतिघातें  सर्द .
जब  भी  डाला   जेब  में  हाथ , हो  गए  सारे  वादे  सर्द .
गरीबी  बसती  है  जिस  गाँव ,  आती  हैं  बारातें  सर्द .
जब  से  गया  तू  शहर  से  दूर  , पड  गई   तेरी  यादें  सर्द .

कल्याणी  कबीर  
28  दिसम्बर , 2012

 सोचती हूँ और .........

डरती हूँ जब हौसलों के चेहरे पर पड़ जायेंगी झुर्रियाँ /
मुझे रोटी के लिए तेरे दर के तरफ देखना होगा /
जब बुढापा रुलाएगा कदम दर कदम पे /
तब महफूज़ छत की जरुरत होगी मेरी बूढी नींद को /
गर दूंगी तेरे हाथों में दवाओं की कोई लिस्ट /
तू भूल तो न जाएगा उन दवाओं को खरीदना /
अभी तो चूमता है मुझको बेसबब घड़ी - घड़ी /
 कहीं तरसेंगे तो नहीं हम तेरे हाथों के छुअन को /
जाने कल के आईने में कैसे दिखेंगे हमारे रिश्ते /
फिलवक्त तो यही सच है हमारे दरम्यान मेरे बच्चे .....
'' मेरे जिस्म का टुकड़ा तू मेरी जान रहेगा ,,,,
 मेरे लिए हमेशा तू नादान रहेगा ...

Thursday, November 21, 2013


अहले सुबह निकलती हूँ घर से ,,


सर्द हवाओं को झेलते ,,

 न जाने कितनी शिकायतों को ओढ़े ,,

 मांझी के ज़ख्मों का हिसाब - 

किताब करते ,,

बज़ट को टटोलते ,,,

रोटी की तलाश में //
पर तभी तक , 
जब तक नज़र नहीं पड़ती उस ६/७ साल के बच्चे पर / 

काँधे पे लिए हुए कागज़ी बोझ का बस्ता ,,

अपने आस - पास के हालात से अनजान ,,
 लाख पढ़ना चाहो पर उसके चेहरे पर कुछ भी भाव नहीं दिखता ,, सपाट / ,, 

उछलते हुए जा रहा होता है स्कूल /

ख़ुशी से नहीं ,, 

अब एक ही पैर से कोई चल तो नहीं सकता ना...............

 उसे देखने के बाद ज़िन्दगी से कोई शिकायत नहीं होती मुझे ,
,
 हाँ पर वो बच्चा मुझे सबसे बड़ा गुरु नज़र आता है ,, 

जो इस हाल में होकर भी ज़िन्दगी की गिनती सिखाता है हमें ,,,,,,,, /

Regards to tht CHILD -

 सहेजें  अबकी  बार  अपने  गुस्से  को  

क्यों  सहेज  नहीं   पाते  हम  अपने  गुस्से  को  देर  तक   ।
बहा  क्यूँ  देते  हैं  वक्त  ढलते  ही  नारजगी  अपनी  
सियासतदानों   के  झूठे  वादों  की  बरसाती  नालियों  में  ।
जोड़ते  नहीं  हम  अपने  हाथ  जब  तक  टूटता  नहीं  कुछ  
गहरे  तक  .....
तभी  तो  खेलते  हैं  वो  सफेदपोश  मदारी  ,
बनकर  हमारी  भूख  को  शतरंज  की  मोहरें  
अपने  नापाक  मंसूबों  की  बिसात  पर   ।
चलो  ,, 
ज़िंदा  रक्खें  अबकी बार  
 नफ़रत  के कुछ   ज़हरीले  पेड़  
बोयें इस  शुष्क  सरज़मीं  पर  कुछ  बागी  शज़र  
गाते  रहें  तरन्नुम  में  इंकलाबी  गीत  
जब  तक  सुराख ना  हो  जाए  हैवानियत  के  उन  तिलिस्मी  किलों  में  
और  फिर  खिंच  लायेंगे किसी  दिन  उसी  दीवार  से  हम  
ज़म्हूरियत   में  नहाई  चांदनी  और  
सुकून  में  लिपटा  एक  सूरज  ...  .//






मत  कर  इंतज़ार  महताब  का  
चल  आसमां  के  छत  पर ,
अंधेरों की  पगडंडियों    से  
गुजरकर  
एक करार  कर  रात  से  ,
निचोड़  डाल  अंधेरों  को  I
और  फिर  देखना  तुम 
 उन्हीं  अंधेरों से  टपकेंगी   बूंदें रौशनी  की I
 जिसमें  हम  उम्मीदों की  फसल  बोयेंगे  ,
बुनेंगे  कुछ  चमकीले  ख्वाब  उसी  उजाले  में  I
लिक्खेंगे  ज़िन्दगी  की  इबारत  हौसलों  की  कलम  से  I
क्योंकि  तुम  जानते  हो  दीपक  तले  अँधेरा  होता  है  
और  ,,
हम जानते  हैं  कि हर  अँधेरे  के  ऊपर  होता  है 
 एक  दीपक  टिमटिमाता  हुआ ............// 
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Wednesday, November 20, 2013


 ये  साईकिल  की  कतारें  


कारखानों  से  निकलती  ये  साईकिल  की  कतारें  

हुजूम  हैं  भट्टियों  में  फ़ना  होते  अस्थियों  की 
 
जो  हर  रात  खंगालती  हैं  अपनी  जेब  

और  रखती  हैं  अपनी  भूख  का  आयतन 
 
सिक्कों   के  वज़न  के  बराबर  

दबोच लेती  हैं  इनकी  आँखों  को  नींद  बाज़  की  तरह  बिस्तर  पर  जाते  ही  

नहीं होती  इनके  पास  सपनों  की  जमा-  पूंजी 
 
और  न  ही  कैलेंडरों   में  पन्ना  आने  वाले  कल  का 

चिमनियों  के  करवट  लेते  काले  धुंएँ  में  

स्याह  होते  इनके  वजूद  को  है  इंतज़ार  उस  दिन का 

जब  बदल  जायेगी  उनके  साईकिल  की  घंटियाँ 
 
जेहादी  बागी  बिगुल में  ..............//


एक  आह  मेरी  सुन  के  जो  हो  जाते   थे  बेचैन .......


मुंसिफ  जो  था  उसे  भी  गुनहगार  देखकर  ,
 हम  खुद  उठा    रहे  हैं  अपनी राह का पत्थर  .

कोई  रखता  हो  छुपा  के  ज्यों जीवन की कमाई ,
 माँ रखती है  छुपा  के यूँ अश्कों का  समंदर  .

एक  आह  मेरी  सुन  के  जो  हो  जाते   थे  बेचैन  ,
 हर ज़ख़्म  से  मेरे  हैं आजकल  वो  बे-खबर .

कानों  में  गूंज  उठाते  हैं  वेदों के  मीठे  बोल  ,
 जब  चहचहाती  हैं  हमारी  बेटियाँ  घर पर .
 
नाज़ों से  जिसने  सींचा था  भारत  की  नींव  को  
वो रहनुमा वतन  के  भटकते  हैं  दर- ब- दर .

  on  1st  September  ,, geelee  dhoop  inaugration , information center