ये साईकिल की कतारें
कारखानों से निकलती ये साईकिल की कतारें
हुजूम हैं भट्टियों में फ़ना होते अस्थियों की
जो हर रात खंगालती हैं अपनी जेब
और रखती हैं अपनी भूख का आयतन
सिक्कों के वज़न के बराबर
दबोच लेती हैं इनकी आँखों को नींद बाज़ की तरह बिस्तर पर जाते ही
नहीं होती इनके पास सपनों की जमा- पूंजी
और न ही कैलेंडरों में पन्ना आने वाले कल का
चिमनियों के करवट लेते काले धुंएँ में
स्याह होते इनके वजूद को है इंतज़ार उस दिन का
जब बदल जायेगी उनके साईकिल की घंटियाँ
जेहादी बागी बिगुल में ..............//
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