कैक्टस हूँ मैं शायद .....
कैक्टस हूँ मैं शायद .....
जी ही लेती हूँ .
साँसोँ के हर सवाल में
हर रुत में - हर हाल में
अश्कों के हर गीत में ,,
तन्हाइयों की हर ताल में
कैक्टस हूँ मैं शायद .....
जी ही लेती हूँ ,
मीठे लफ़्ज़ों के बादल बिन भी ,
नीली - बूँदों के आँचल बिन भी .
दरकती रिश्तों की ज़मीं पर भी ,
जलती धूप के कालीन पर भी .
झुलसाती हवाओं के बीच भी ,
काम न आती दुआओं के बीच भी .
बदन जलाती दोपहर को भी ,
तन्हाइयों के ज़हर को भी ,
पी ही लेती हूँ .
जी ही लेती हूँ .....
हर रुत में - हर हाल में
कैक्टस हूँ मैं शायद ..... !!
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डॉ कल्याणी कबीर