Thursday, January 1, 2015

कैक्टस हूँ मैं शायद  ..... 



कैक्टस हूँ मैं शायद  ..... 
जी ही लेती हूँ .

साँसोँ के हर सवाल में 
हर रुत   में - हर हाल में 
अश्कों के हर गीत में ,, 
तन्हाइयों की हर ताल में 

कैक्टस हूँ मैं शायद  ..... 
जी ही लेती हूँ ,

मीठे लफ़्ज़ों के बादल बिन भी ,
नीली - बूँदों के आँचल बिन भी  .

दरकती रिश्तों की ज़मीं पर भी ,
जलती धूप के कालीन पर भी .

झुलसाती हवाओं के बीच भी ,
काम  न आती दुआओं के बीच भी  .

बदन जलाती  दोपहर को भी  ,
तन्हाइयों के ज़हर को भी ,
पी ही  लेती हूँ .

जी ही लेती हूँ ..... 
हर रुत   में - हर हाल में 
कैक्टस हूँ मैं शायद  ..... !!
+++++++++++++++++++++++
डॉ कल्याणी कबीर 


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