सूरज बाबा रोज़ आते है
सूरज बाबा रोज़ आते हैं
लेकर पोटली में चमचमाती धूप
और ,,,
झिलमिलाती किरणों की चूड़ियाँ
पर मिलती नहीं उन्हें खिड़कियाँ ...
न आँगन ,,
न चबूतरे ,,
न छत ,,
न बरामदा
सिर्फ दीवारें ही दीवारें दिखती हैं
घरों के अंदर भी और बाहर भी
गैराज बन गए गाड़ियों के , जो कल थे खेल के मैदान ,
चहचहाते थे परिंदे जहाँ , वो शाखें है सुनसान
उँडेले किस पर वो दुआएँ ईश की ,,
फैलाएँ अब कहाँ किरणें अशीष की
लौट जाते हैं वो उदास रात की पगडंडियों पर
इंसानों की जगह ज़मीं पर रेंगते
मशीनों को देखकर .....//
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