Tuesday, September 17, 2013


अगर करते  हो   गाँधी   से  अब तक प्यार 

गलत किया गाँधी ने ,
 आदत   लगा दी  लोगों को  पीछे -  पीछे चलने   की 
अब लड़ते  ही  नहीं लोग  अपने   हिस्से की  भी  छोटी - छोटी  लडाइयाँ  
तकते   हैं  आसमान  की ओर 
 बाट  जोहते हैं  एक आसमानी  फ़रिश्ते  की 
जो  आयगा नंगे   बदन , एक  लाठी पकडे 
 झाँकेंगी  चश्मे  के  पीछे  से  उसकी   पारखी नज़र 
पर  भूल रहे  हैं  हम कि  
 उन्हें भी  फेंक  दिया  था  चलती  रेल से   सिरफिरी अंग्रेज़ी  हुकूमत  ने 
 गोडसे की  गोली ने  नहीं   बख्शा  था  शांति  के उस  दूत को  भी 
हमें  समझना  होगा कि   ताकत गाँधी    में नहीं उनके पीछे  चल रहे  हुजूम में  थी 
चल  रहे थे  जो  एक  दूसरे  से   उंगलियाँ   फँसाये 
एक जिद्दी  रास्ते  पर 
अमन और  आज़ादी  की  तलाश  में 
आहिस्ता  - आहिस्ता 
अब  रहने भी दो यारों 
चलो  गढ़े   एक- एक  गाँधी   हम सब अपने  भीतर 
 अगर करते  हो गाँधी   से   अब तक प्यार 
न  करो  एक  अँधा इंतज़ार  
किसी  गाँधी  का  
अबके  बार  - अबके  बार  //

कल्याणी   कबीर 

Saturday, September 14, 2013

              मोबाइल स्विच ऑफ़ है 


''इस वक्त उपभोक्ता का मोबाइल स्विच ऑफ़ है '' सिर्फ ये एक वाक्य ही काफी है किसी रिश्ते के प्रगाढ़ होने की खुशफहमी की धज्जी उड़ाने के लिए . तकनीक हर रिश्ते पर भारी है .मिनटों में बने रिश्ते सैकेंडस में दूर नज़र आते है यदि ये तकनीक की पुल पर बने हों .ज़माने से भी बड़ी दिवार है ये ब्रह्मवाक्य '' net is not working ,out of coverage area ,busy,switched off ''. इन उदघोषणाओं से जूझने की ताकत किसी में नहीं .

सर जी !!!! रिश्ते तो वो हैं जिसे हाथ बढाते ही हम छू लें ....साँसों की तरह .


[ कल्याणी कबीर 

Friday, September 13, 2013

तू    कितनी  बदसूरत है  ज़िन्दगी  ........
जानती हूँ दरारें पड़ जायेंगी उस ज़मीं पे ,, जहाँ खड़ी हूँ /

छूट जाएगा वो साथ जिस पे यकीं है फिलवक्त /


खत्म हो जाएगा वो सिलसिला जो अपना सा लगता है अभी /


फिर भी खड़ी हूँ उसी मोड़ पे ,,,, उसी जगह ,,


क्योंकि चाहती हूँ टूट जाना ,, बिखर जाना अब 


बहुत ही छोटे - छोटे टुकड़ों में ...


ताकि फिर कभी ज़िन्दगी में कोई तोड़ना भी चाहे तो 


मेरे और टूटने की गुंजाइश न रहे .................... 


:--- kalyani kabir




ऐ कलम के कारीगरों ,,
सच पे लिखना कुछ और बात है और सच के लिए लड़ना कुछ और ,,
फर्क है सूरज को स्वयं गढ़ने में और चढ़ते सूरज को सलाम करने में ,,
हुई इस कदर रुसवा वो अपने सरज़मीं पर
कि लगाया गले मौत को भी किसी और वतन में ,,,
जी रही है आज भी वो हमारे अश्कों की चीख में
और लिपटा पडा है मादरे - हिंद अपने कफन में .../kk/
[ हमें माफ़ मत करना '' दामिनी '' ]

Friday, September 6, 2013

मेरा अस्त्तित्व ,
महज कुछ शब्दों की गठरी नहीं है .
न ही ये हो हल्ला मचाने का एक जरिया भर है .
ये है मेरी सोच का हस्ताक्षर ,,,,,मेरे होने का प्रमाण - पत्र
. मेरी जीवन राह् है ये ,,.. जो हलचल से नहीं डरती
न ही घबराती है अनवरत जगती रातों से ,
ये एक रोशनी है जिसकी छांव मॆं सांस ले रही है सृष्टि सारी ,,
मेरा वजूद मेरे गर्भ मॆं पल रहे शिशु की तरह है
जो पहचान है मेरे स्त्रीत्व की
और
जिसका जीवित रहना
मेरे जीवित रहने से भी ज्यादा जरूरी है ........//
ज़िन्दगी सौ ग्राम की हो या सात सौ ग्राम की ज़िन्दगी है । इस ज़िन्दगी में गरीब अपने पेट कों लेकर परेशान है तो अमीर अपने " पासबुक " कों सँभालने में । पर परेशान सब हैं कारण अलग हो सकता है ।

तो फिर ........ ऐ ज़िन्दगी गले लगा ले , हमने भी तेरे हर एक ग़म कों गले से लगाया है , ,,,,,,,,,, है ना /
........एक सेठ था .कहता था कि वो तन्हा है और ग़मगीन भी . एक मैना भी थी जो रहती थी सूने अँधेरे जंगल में ,, उदास थी वो भी अपनी ज़िन्दगी से . दोनों मिले साझा किया अपना दुःख , अपनी तकलीफ . एक रिश्ता बनाया नहीं तोड़ने के लिए ,, चाहत और यकीं के बल पर , बिना किसी कागजी हस्ताक्षर और हलफनामे के . फिर एक दिन अचानक सेठ तोता ले आया . बेरूख होने लगामैना से . उसे अब मैना से उसका रिश्ता तोड़ने लायक लगने लगा . सेठ शातिर था पर मैना संवेदनशील . वो सेठ के इस रवैये को बर्दाश्त नहीं कर पाई . झगड़ने लगी , बोलने लगी उलटी - पुलटी बात . बस फिर क्या था ,, बहाना मिल गया सेठ को मैना से पीछा छुडाने का , बोझ सा लगने लगा था उसे अब ये रिश्ता ,,मैना के चीख के पीछे छिपी चाहत उसे नज़र नहीं आती थी अब . निकाल फेंका उसने मैना को अपनी ज़िन्दगी से . उसे तो वैसे भी अब तोता मिल गया था अपनी शामें रंगीन करने के लिए . वो चाहता था मैना फिर चली जाए उसी अँधेरे जंगल में ,बिना सवाल खड़े किये ,किसी बेजान सामान की तरह . मैना फिर तनहा ,,चली गई जंगल ,,,जीने नहीं,,,मौत का इंतज़ार करने ...... कितनी बुद्धू थी न मैना ? क्या जरुरत थी किसी को इतना चाहने की .////
BY नाम तो याद है ना मेरा :---- Kalyani Kabir---
दुःख तो बहुत होता है जब किताबें कुछ और पढ़ाती हैं और ज़िन्दगी कुछ और ,,
उसूलों , रवायतों का '' क , ख , ग '' पढ़कर भी जब उलझ जाती हैं साँसें जज्बातों के भूगोल में ,
कदम रोते हैं जब .... रिवाजों के रास्ते और ख़्वाबों की गली जुदा नज़र आते हैं ,,
पर ,,
मुश्किल है ,, अपने भीतर रह रही उस '' मैं '' को रोकना
जो सफ़ेद बालों में चेहरा छुपाये ,, अब भी ढूँढती रहती है ,
मुस्कुराने की वज़ह .......... उनकी आँखों में //


kalyani  kabir