Friday, September 13, 2013

जानती हूँ दरारें पड़ जायेंगी उस ज़मीं पे ,, जहाँ खड़ी हूँ /

छूट जाएगा वो साथ जिस पे यकीं है फिलवक्त /


खत्म हो जाएगा वो सिलसिला जो अपना सा लगता है अभी /


फिर भी खड़ी हूँ उसी मोड़ पे ,,,, उसी जगह ,,


क्योंकि चाहती हूँ टूट जाना ,, बिखर जाना अब 


बहुत ही छोटे - छोटे टुकड़ों में ...


ताकि फिर कभी ज़िन्दगी में कोई तोड़ना भी चाहे तो 


मेरे और टूटने की गुंजाइश न रहे .................... 


:--- kalyani kabir




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