एक आह मेरी सुन के जो हो जाते थे बेचैन .......
मुंसिफ जो था उसे भी गुनहगार देखकर ,
हम खुद उठा रहे हैं अपनी राह का पत्थर .
कोई रखता हो छुपा के ज्यों जीवन की कमाई ,
माँ रखती है छुपा के यूँ अश्कों का समंदर .
एक आह मेरी सुन के जो हो जाते थे बेचैन ,
हर ज़ख़्म से मेरे हैं आजकल वो बे-खबर .
कानों में गूंज उठाते हैं वेदों के मीठे बोल ,
जब चहचहाती हैं हमारी बेटियाँ घर पर .
नाज़ों से जिसने सींचा था भारत की नींव को
वो रहनुमा वतन के भटकते हैं दर- ब- दर .
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