सहेजें अबकी बार अपने गुस्से को
क्यों सहेज नहीं पाते हम अपने गुस्से को देर तक ।
बहा क्यूँ देते हैं वक्त ढलते ही नारजगी अपनी
सियासतदानों के झूठे वादों की बरसाती नालियों में ।
जोड़ते नहीं हम अपने हाथ जब तक टूटता नहीं कुछ
गहरे तक .....
तभी तो खेलते हैं वो सफेदपोश मदारी ,
बनकर हमारी भूख को शतरंज की मोहरें
अपने नापाक मंसूबों की बिसात पर ।
चलो ,,
ज़िंदा रक्खें अबकी बार
नफ़रत के कुछ ज़हरीले पेड़
बोयें इस शुष्क सरज़मीं पर कुछ बागी शज़र
गाते रहें तरन्नुम में इंकलाबी गीत
जब तक सुराख ना हो जाए हैवानियत के उन तिलिस्मी किलों में
और फिर खिंच लायेंगे किसी दिन उसी दीवार से हम
ज़म्हूरियत में नहाई चांदनी और
सुकून में लिपटा एक सूरज ... .//
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